मेरे विचार से अब राजस्थान में भी मत्स्य क्षेत्र में सुधार किए जाने की समय की मांग है, जरुरत है. इसके लिए दो बिन्दुओ पर ध्यान देकर सुधार की प्रक्रिया की जानी चाहिए. पहिला स्पीशीज डाईवेर्सीफिकेशन और दूसरा मार्केटिंग. लेकिन इसके लिए राज्य सरकार के पास समुचित प्रपोजल भेजना और इसे लागू कराने के लिए दबाव डालना, बेहद जरुरी है. मेरी सोच है की प्रपोजल तैयार करने के लिए मत्स्य कॉलेज, उदयपुर को आगे आना चाहिए. कॉलेज या यूनिवर्सिटी स्तर पर स्टडी ग्रुप बना कर “राजस्थान में मत्स्य क्षेत्र में सुधार ” पर रिपोर्ट तैयार करनी चाहिए. इस ग्रुप में cife जैसी icar के इंस्टिट्यूटशन को शामिल कर देने से निःसन्देह रिपोर्ट की विश्वसनियता बढ़ेगी और इसमें दिए गए सुधारो को लागू कराने में सरकार पर दबाव बनाने में मदद मिलेगी.
भारत सरकार द्वारा जारी ” Handbook on fisheries statistics 2018 ” में दिए गए आकड़ो के अनुसार वर्ष 2017 में राजस्थान का कुल मछली उत्पादन 54035 मेट्रिक टन रहा. इसमें मेजर कार्प 39015 मेट्रिक टन अर्थात कुल उत्पादन का योगदान 72.2 % रहा. पिछले कई सालो के आंकड़े देखे तो मेजर कार्प का योगदान लगभग यही रह कर स्थिर सा ही हो गया है. कहा जाये तो राजस्थान में मेजर कार्प के उत्पादन में स्थिरता यानी जड़ता यानी stagnancy ही आ गई है. वैसे भी इस राज्य का फिशरीज सेक्टर “छोटी मछली, छोटा जाल और कतला, रोहू नरेन ” की मानसिकता पाले हुए है.
पंचायती राज विभाग को मत्स्य विभाग से सालाना 5 लाख रुपया इनकम के जलक्षेत्र दिए गए है. इनसे होने वाली आय का उपयोग पंचायत राज विभाग को अपने स्तर पर अपनी खुशहाली बढ़ाने के लिए किया जाता है. जबकि मत्स्य विभाग को अपनी 50 करोड़ की कमाई का खुद के विकास पर खर्च का अधिकार नही है. ग्राम पंचायत को पंचायत रूल्स 172 के अंतर्गत आने वाले तालाबो में मछली का ठेका देने का अधिकार है और इस इनकम को सरकारी इनकम नही मानते हुए ग्राम पंचायत को अपने स्तर पर खर्च करने का अधिकार है. परन्तु अपने ही तालाबो में मत्स्य विकास की ओर ध्यान देने में पंचायत विभाग उदासीन ही है. यही हालत सहकारिता विभाग की है. सहकारी क्षेत्र में खाद बेचने व बैंकिंग सेक्टर में तो रूचि रहती है. पर सहकारी विभाग मछलिओं की बिक्री व उत्पादन की तरफ उदासीन ही है.
जहाँ तक मार्केटिंग की बात है, आज भी राज्य का एक छोटा सा समुदाय मांस, मछली के व्यापार, वितरण, भोजन इत्यादि में हिंसा देखता है, इसे पनपाने में हिंसा व पाप देखता है. यह समुदाय भले ही छोटा है, लेकिन आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक रूप से प्रभावशाली है. जबकि भोजन में माँसाहारी सामग्री उपयोग करने वाला समुदाय जैसे एस सी, एस टी के साथ मुस्लिम, मेव, सिख, सिंधी, राजपूत, इत्यादि की जातीय संख्या कही अधिक है. इस राज्य में समीपवर्ती राज्यों की तरह सब्जी मंडी में जमीन पर बैठ कर मछली बेचने का नजारा कही नही दिखेगा. राजस्थान में तो मछली बेचने का काम लुक-छिप कर गॉव -कस्बे व शहर के किसी कोने पर ही किया जाता दिखेगा. वैसे कानून व नियमों में तो मांस -मछली होलसेल मार्किट विकसित करने का काम कृषि उपज मंडी समिति और खुदरा का काम नगरीय परिषद व निगम को दिया गया है. यही लाइसेंस देने वाली अथॉरिटी है. इसी प्रकार, मांस – मछली की शुद्धता जांचने का काम मेडिकल डिपार्टमेंट का है. परन्तु यह सरकारी संस्थाए भी इस तरफ ध्यान नही दे रही है, उदासीन है.
भले ही नाम से मत्स्य विभाग है, पर इसका अधिकार क्षेत्र तो सीमित ही है. इस विभाग के पास मत्स्य विकास के लिए धन की कमी नही है. भारत सरकार की योजनाएँ और nfdb जैसी सरकारी संस्था के वित्तीय संसाधनों से राज्य में मत्स्य विकास को नई दिशा व गति दी जा सकती है. परन्तु इस काम के लिए अन्य विभागों का सहयोग व रूचि जरुरी है. मत्स्य विभाग तो राज्य के विभिन्न सम्बंधित विभागों के बीच कोऑर्डिनेटर का काम ही कर सकता है. वैसे अगर पंचायत, सहकारिता, कृषि उपज मंडी, नगरीय विकास जैसे विभागों से इनके ही act व rules का हवाला दे कर पूछताछ की जाए तो फौरन ही मत्स्य विभाग की ओर इशारा कर देंगे. वैसे भी राजस्थान के मत्स्य राज्य मंत्री की हालत तो उस भारतीय नारी जैसी है, जिसके बारे में कहा जाता है ” जिसको कुछ अधिकार ना हो, वो घर की रानी माना है “.
कई कारण है, जो राजस्थान में मत्स्य विकास के लिए स्टडी रिपोर्ट बनाने और विधाई तरीके से सरकार व समाज का ध्यान दिलाने की जरुरत को महसूस करा रहे है. अगर समय रहते मत्स्य क्षेत्र में सुधार की ओर ध्यान नही दिया गया, अपनी विचारधारा को आधुनिक सोच नही दी गई और राजस्थान के मत्स्य क्षेत्र में सुधार और नवाचार नही किया गया तो यह राज्य बहुत ही पिछड़ जायेगा.